देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ
हासिल न हुआ सैर-ए-मुकर्रर के सिवा कुछ
मुद्दत से है मामूरा-ए-बाज़ार-ए-ग़रीबाँ
ये शहर न था जिस में तिरे घर के सिवा कुछ
किस हाल में उस शोख़ से वाबस्ता हुआ दिल
सौग़ात में देने को नहीं सर के सिवा कुछ
वो ग़ुर्फ़ा-नशीनी है न है शहर-नवर्दी
बाक़ी न रहा हिज्र में बिस्तर के सिवा कुछ
फूलों से बदन डूबते देखे गए अक्सर
इस बहर में तेरा नहीं पत्थर के सिवा कुछ
करते भी तलब क्या क्या यहाँ दश्त-ए-अता में
देने को न था जिंस-ए-मयस्सर के सिवा कुछ
ग़ज़ल
देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ
नश्तर ख़ानक़ाही