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देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ | शाही शायरी
dekha nahin dekhe hue manzar ke siwa kuchh

ग़ज़ल

देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ

नश्तर ख़ानक़ाही

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देखा नहीं देखे हुए मंज़र के सिवा कुछ
हासिल न हुआ सैर-ए-मुकर्रर के सिवा कुछ

मुद्दत से है मामूरा-ए-बाज़ार-ए-ग़रीबाँ
ये शहर न था जिस में तिरे घर के सिवा कुछ

किस हाल में उस शोख़ से वाबस्ता हुआ दिल
सौग़ात में देने को नहीं सर के सिवा कुछ

वो ग़ुर्फ़ा-नशीनी है न है शहर-नवर्दी
बाक़ी न रहा हिज्र में बिस्तर के सिवा कुछ

फूलों से बदन डूबते देखे गए अक्सर
इस बहर में तेरा नहीं पत्थर के सिवा कुछ

करते भी तलब क्या क्या यहाँ दश्त-ए-अता में
देने को न था जिंस-ए-मयस्सर के सिवा कुछ