EN اردو
देख तू यार-ए-बादा-कश! मैं ने भी काम क्या किया | शाही शायरी
dekh tu yar-e-baada-kash! maine bhi kaam kya kiya

ग़ज़ल

देख तू यार-ए-बादा-कश! मैं ने भी काम क्या किया

शाह नसीर

;

देख तू यार-ए-बादा-कश! मैं ने भी काम क्या किया
दे के कबाब-ए-दिल तुझे हक़्क़-ए-नमक अदा किया

क्यूँ सग-ए-यार से ख़जिल मुझ को पस-अज़-फ़ना क्या
खा गया उस्तुख़्वाँ मिरे तू ने ये क्या हुमा किया

ज़ख़्म-ए-जिगर से दम-ब-दम कब नहीं ख़ूँ-बहा किया
तो भी न क़ातिल अपने से दावा-ए-ख़ूँ-बहा किया

उस बुत-ए-रश्क-ए-गुल ने जब बंद-ए-क़बा को वा किया
अपनी नज़र ये ग़ुंचा दो हाथ से फिर मला किया

कौन से दिन न यार ने चश्म को सुर्मा-सा किया
कब न दिल-ए-सियाह-बख़्त ख़ाक में तू मिला किया

दिलबर-ए-शोला-ख़ू ने जब ज़ुल्फ़ को रुख़ पे वा किया
दिल पे मैं सूरा-ए-दुख़ाँ करने को दम पढ़ा किया

बादा-कशी को साक़िया किस की मुझे बता हुबाब
ज़ोर-ए-भँवर के चाक पर साग़र-ए-मय बना किया

वस्ल की रात हम-नशीं क्यूँकि कटी न पूछ कुछ
बरसर-ए-सुल्ह में रहा तिस पे भी वो लड़ा किया

पाए-निगार से लिपट चोर बनी तो आप को ही
हाथ न क्यूँ तिरे बंधीं काम ये क्या हिना किया

दिल की जुदाई का कहूँ किस से मैं माजरा-ए-ग़म
सैल-ए-सरिश्क-ए-चश्म-ए-तर शाम-ओ-सहर बहा किया

शक्ल-ए-असा-ए-मूसवी था तो वो गेसू-ए-दराज़
पर उसे दस्त-ए-शाना ने दे के ख़म और दुता किया

ज़ेब-ए-सर-ए-शहाँ कभी तू ने न देखा तीरा-बख़्त
बाल-ए-मगस ने कब दिला कार-ए-पर-ए-हुमा किया

तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब
नाख़ुन-ए-तेग़-ए-यार को मैं ने गिरह-कुशा किया

बोसा-ए-लब से एक दिन उस के हुआ न कामयाब
दिलबर-ए-बद-ज़बाँ की मैं गालियाँ ही सुना किया

आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
इस का भी हम ने सिलसिला अज़-सर-ए-नौ बपा किया

मुँह तो न था ये ग़ैर का उस को खिलाए बर्ग-ए-पाँ
पर न मिरा जो बस चला ख़ून-ए-जिगर पिया किया

उस की शिकस्तगी का ग़म क्यूँ न हो मुझ को साक़िया
मेरी बग़ल में आह याँ शीशा-ए-दिल रहा किया

तार-ए-नफ़स जुदा किया बरबत-ए-तन से मेरे आह
काैदक-ए-मुतरिब और क्या तुझ को कहूँ बजा किया

कोह को खींचता जो तू काह-रुबा तो जानते
इक पर-ए-काह को उठा नाज़ किया तो क्या किया

क्यूँ हो ख़िज़्र-ए-रह-रवाँ ख़ाक-नशीनी पे मिरी
जिस ने बशक्ल-ए-नक़्श-ए-पा मुझ को है रहनुमा किया

शोला-रुख़ों के इश्क़ ने कुंज-ए-मज़ार में भी आह
सोने दिया न चैन से मैं तो सदा जला किया

मुझ को है हिज्र-ओ-वस्ल एक इस की ख़ुशी न उस का ग़म
कैसी मुसीबतों के दिन बार-ए-ख़ुदा भरा किया

वस्ल हुआ तो ये हुआ मार-ए-सियाह जान कर
रात भर अपनी ज़ुल्फ़ के साए से वो डरा किया

और मैं मुद्दआ-तलब ऐश से ना-उमीद हो
शोला-ए-शम्अ की तरह सर को पड़ा धुना किया

मुद्रिका-ए-बशर है क्या पाए जो उस की कुनह को
चाहा जो उस ने सो किया कौन कहे कि क्या किया

यानी बना के चश्म को सूरत-ए-शीशा-ए-हुबाब
साहिब-ए-ज़र्फ़ था जो दिल जाम-ए-जहाँ-नुमा किया

अपनी शरारतों से वो बाज़ न आया ऐ 'नसीर'
मुझ को रुला के अब्र साँ बर्क़-ए-नमत हँसा किया