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देख पाए तो करे कोई पज़ीराई भी | शाही शायरी
dekh pae to kare koi pazirai bhi

ग़ज़ल

देख पाए तो करे कोई पज़ीराई भी

सईद शरीक़

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देख पाए तो करे कोई पज़ीराई भी
मैं तमाशा भी हूँ और उस का तमाशाई भी

कौन समझे मिरी आबादी-ओ-वीरानी को
झील की सत्ह पे कश्ती भी है और काई भी

क़फ़स-ए-वस्ल में सब शोर हमारा तो नहीं
फ़ड़फ़ड़ाता है बहुत ताइर-ए-तन्हाई भी

अब उदासी किसी देरीना नशे के मानिंद
मेरी कमज़ोरी भी है और तवानाई भी

कितनी लहरें थीं जो मुश्तरका थीं हम दोनों में
सो तिरे साथ हुई कम मिरी गहराई भी

अब मैं कानों पे रखूँ हाथ कि आँखों पे रखूँ
शोर इतना है कि ले जाएगा बीनाई भी

बाँसुरी की वही आवाज़ सुनाते हैं मुझे
ढोल भी प्यानो भी सारंगी भी शहनाई भी

मैं ने तोहफ़े में नए रंज की चादर 'शारिक़'
सिर्फ़ लाई ही नहीं ख़ुद उसे पहनाई भी