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देख न पाया जिस पैकर को वादों की अँगनाई में | शाही शायरी
dekh na paya jis paikar ko wadon ki angnai mein

ग़ज़ल

देख न पाया जिस पैकर को वादों की अँगनाई में

शारिक़ जमाल

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देख न पाया जिस पैकर को वादों की अँगनाई में
ढूँड रहा हूँ उस का चेहरा ख़्वाबों में तन्हाई में

कैसे हो मालूम ये आख़िर पुरवाई के झोंकों को
फूलों पर क्या बीत चुकी है शाख़ों की अंगड़ाई में

ढलते सूरज की आँखों ने आख़िर मुझ को ढूँड लिया
छुप न सका मैं भी पीपल के साए की लम्बाई में

पा कर तेरी साँस की आहट दिल यूँ मचला जाए है
जैसे शोर मचाए गागर पनघट की गहराई में

हर इक शख़्स के आगे करूँ क्यूँ शिकवे की दीवार खड़ी
सिर्फ़ इक तेरा हाथ है मेरे लहजे की रुस्वाई में

'शारिक़' डाल दो आँखों पर तुम अपनी पलकों का ये ग़िलाफ़
सारा शहर पहुँच गया है सन्नाटे की खाई में