देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का
हौसला इतना कहाँ अपनी निगाह-ए-पस्त का
नीस्त रहते हम तो ये सैरें कहाँ से देखते
ये फ़क़त एहसान है उस ज़ात-ए-पाक-ए-मस्त का
बे-सदा आ कर लगा और हो गया सीने के पार
ये ख़दंग-ए-साफ़ था किस बे-निशाँ की शस्त का
बात कुछ कहता है और निकले है मुँह से कुछ 'नज़ीर'
ये नशा तुझ को हुआ किस की निगाह-ए-मस्त का
ग़ज़ल
देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का
नज़ीर अकबराबादी