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देख कर रू-ए-सनम को न बहल जाऊँगा | शाही शायरी
dekh kar ru-e-sanam ko na bahal jaunga

ग़ज़ल

देख कर रू-ए-सनम को न बहल जाऊँगा

शाद लखनवी

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देख कर रू-ए-सनम को न बहल जाऊँगा
मरते दम ले के सँभाला तो सँभल जाऊँगा

तन कफ़न-पोश तो हो और ही पैराहन में
उजले कपड़े में बदलते ही बदल जाऊँगा

चमन-ए-दहर में वो बर्ग-ए-ख़िज़ानी हूँ मैं
गर न बर्बाद हुआ आग में जल जाऊँगा

हूँ वो साबित-क़दम ऐ चर्ख़ जो भौंचाल भी आए
चाहे टल जाए ज़मीं मैं नहीं टल जाऊँगा

मैं वो उफ़्तादा-ए-चश्म-ओ-नज़र-ए-आलम हूँ
पाँव पकड़ेगी ज़मीं भी तो फिसल जाऊँगा

साज़-ओ-सामान-ए-तरब कुछ न अगर हाथ आया
झाँझ हो कर कफ़-ए-अफ़सोस ही मल जाऊँगा

'शाद' बहकूँ न कभी नश्शा-ए-दौलत हो हज़ार
कुछ मैं कम-ज़र्फ़ नहीं हूँ जो उबल जाऊँगा