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देख कर हम को असीर-ए-आरज़ू | शाही शायरी
dekh kar hum ko asir-e-arzu

ग़ज़ल

देख कर हम को असीर-ए-आरज़ू

अमजद नजमी

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देख कर हम को असीर-ए-आरज़ू
और भी वो हो गए बेगाना-ख़ू

फाड़ डाला दस्त-ए-वहशत ने जिसे
फिर करें क्या इस गरेबाँ का रफ़ू

फिर सजाओ महफ़िल-ए-दार-ओ-रसन
मुज़्तरिब है फिर ज़बान-ए-गुफ़्तुगू

गर ज़ियादा से ज़ियादा हों गुनह
कम नहीं है आयत-ए-ला-तक़नतू

मुझ को डर लगता है अपने शहर में
हैं बहुत ऊँचे यहाँ के काख़-ओ-कू

जब भी रुत आती है पतझड़ की यहाँ
चूस लेती है बहारों का लहू

रह के 'नजमी' ने पस-ए-पर्दा यहाँ
कर दिया है सब को महव-ए-जुस्तुजू