देख दरिया है किनारे को सँभाल
ये मोहब्बत ये मोहब्बत का ज़वाल
इस ज़माने को तरस जाएँगे हम
आह ये तिश्नगी-ए-हिज्र-ओ-विसाल
मीठी बातों से अदा जागती है
नरम आँखों में सँवरते हैं ख़याल
ज़ख़्म बिगड़े तो बदन काट के फेंक
वर्ना काँटा भी मोहब्बत से निकाल
आप की याद भी आ जाती है
इतनी महरूम नहीं बज़्म-ए-ख़याल
ख़त जो आया है उन्हीं का होगा
हाँ ज़रा आज तबीअ'त थी बहाल
हाए फिर फ़स्ल-ए-बहार आई 'ख़िज़ाँ'
कभी मरना कभी जीना है मुहाल
ग़ज़ल
देख दरिया है किनारे को सँभाल
महबूब ख़िज़ां