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देख दरिया है किनारे को सँभाल | शाही शायरी
dekh dariya hai kinare ko sambhaal

ग़ज़ल

देख दरिया है किनारे को सँभाल

महबूब ख़िज़ां

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देख दरिया है किनारे को सँभाल
ये मोहब्बत ये मोहब्बत का ज़वाल

इस ज़माने को तरस जाएँगे हम
आह ये तिश्नगी-ए-हिज्र-ओ-विसाल

मीठी बातों से अदा जागती है
नरम आँखों में सँवरते हैं ख़याल

ज़ख़्म बिगड़े तो बदन काट के फेंक
वर्ना काँटा भी मोहब्बत से निकाल

आप की याद भी आ जाती है
इतनी महरूम नहीं बज़्म-ए-ख़याल

ख़त जो आया है उन्हीं का होगा
हाँ ज़रा आज तबीअ'त थी बहाल

हाए फिर फ़स्ल-ए-बहार आई 'ख़िज़ाँ'
कभी मरना कभी जीना है मुहाल