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दे सकेगा न तुम्हें फिर कोई आवाज़ कहीं | शाही शायरी
de sakega na tumhein phir koi aawaz kahin

ग़ज़ल

दे सकेगा न तुम्हें फिर कोई आवाज़ कहीं

सग़ीर अहमद सग़ीर अहसनी

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दे सकेगा न तुम्हें फिर कोई आवाज़ कहीं
मेरी हस्ती का अगर टूट गया साज़ कहीं

इश्क़ महकूम सही बेकस-ओ-मजबूर सही
हुस्न तन्हा भी हुआ है असर-अंदाज़ कहीं

ग़म-ए-ना-क़दरी-ए-दुनिया तो नहीं है लेकिन
निगह-ए-दोस्त न कर दे नज़र-अंदाज़ कहीं

ख़ामी-ए-ज़ौक़-ए-तलब ने हमें रक्खा महरूम
ये ग़लत है न सुनी हो तिरी आवाज़ कहीं

बहर-ए-हस्ती में जो उभरा तो उभारा तू ने
मैं हुआ आप न ऐ दोस्त सर-अफ़राज़ कहीं

रंग माहौल-ए-चमन से ये हुवैदा है 'सग़ीर'
काम आएगी मिरी जुरअत-ए-पर्वाज़ कहीं