दे के ख़ुद ख़ून का मंज़र मुझ को
आज कहता है वो ख़ंजर मुझ को
कब रहा कोई ठिकाना अपना
अब कि ढूँढो मिरे अंदर मुझ को
देख कर मेरा शिकस्ता होना
कहता है पीर सिकंदर मुझ को
ज़ख़्म-ए-जाँ और तबस्सुम शेवा
कर गया वक़्त क़लंदर मुझ को
मुझ को सहरा सा मिला था जो कभी
कर गया वो ही समुंदर मुझ को
ग़ज़ल
दे के ख़ुद ख़ून का मंज़र मुझ को
आतिफ़ ख़ान