दयार-ए-इश्क़ की शमएँ जला तो सकते हैं
ख़ुशी मिले न मिले मुस्कुरा तो सकते हैं
हमेशा वस्ल मयस्सर हो ये ज़रूरी नहीं
दो एक दिन को तिरे पास आ तो सकते हैं
जो राज़-ए-इश्क़ है उन को छुपाएँगे लेकिन
जो दाग़-ए-इश्क़ हैं सब को दिखा तो सकते हैं
हम इम्तिहान में नाकाम हूँ ये रंज नहीं
इसी में ख़ुश हैं कि वो आज़मा तो सकते हैं
नसीम-ए-सुब्ह के झोंके हैं ख़ुश-गवार मगर
कभी कभी ये दिलों को दिखा तो सकते हैं
यही बहुत है कि इस ख़ार-ज़ार-ए-दुनिया में
तुझे हम अपने गले से लगा तो सकते हैं
ग़ज़ल
दयार-ए-इश्क़ की शमएँ जला तो सकते हैं
असअ'द बदायुनी