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दयार-ए-हब्स में बुझते हुए चराग़ों को | शाही शायरी
dayar-e-habs mein bujhte hue charaghon ko

ग़ज़ल

दयार-ए-हब्स में बुझते हुए चराग़ों को

साइम जी

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दयार-ए-हब्स में बुझते हुए चराग़ों को
ज़रा सहारा हवा का मिले चराग़ों को

बुझे चराग़ों की सरगोशियों में ख़तरा है
हवा भी कान लगा कर सुने चराग़ों को

दिखा न पाएँ जो रस्ता किसी मुसाफ़िर को
तो क्या करे कोई रह में पड़े चराग़ों को

तुम्हारे बस में नहीं है तो रौशनी दूँगा
चराग़ बन के जो उतरे कहे चराग़ों को

पलट के आए अंधेरों को मात दे कर हम
हमारी राह में कोई रखे चराग़ों को