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दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही | शाही शायरी
dayar-e-dil na raha bazm-e-dostan na rahi

ग़ज़ल

दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही

शहरयार

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दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
अमाँ की कोई जगह ज़ेर-ए-आसमाँ न रही

रवाँ हैं आज भी रग रग में ख़ून की मौजें
मगर वो एक ख़लिश वो मता-ए-जाँ न रही

लड़ें ग़मों के अँधेरों से किस की ख़ातिर हम
कोई किरन भी तो इस दिल में ज़ौ-फ़िशाँ न रही

मैं उस को देख के आँखों का नूर खो बैठा
ये ज़िंदगी मिरी आँखों से क्यूँ निहाँ न रही

ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को
सुनाने के लिए जब कोई दास्ताँ न रही