दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
अमाँ की कोई जगह ज़ेर-ए-आसमाँ न रही
रवाँ हैं आज भी रग रग में ख़ून की मौजें
मगर वो एक ख़लिश वो मता-ए-जाँ न रही
लड़ें ग़मों के अँधेरों से किस की ख़ातिर हम
कोई किरन भी तो इस दिल में ज़ौ-फ़िशाँ न रही
मैं उस को देख के आँखों का नूर खो बैठा
ये ज़िंदगी मिरी आँखों से क्यूँ निहाँ न रही
ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को
सुनाने के लिए जब कोई दास्ताँ न रही
ग़ज़ल
दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
शहरयार