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दवा-ए-दर्द-ए-ग़म-ओ-इज़्तिराब क्या देता | शाही शायरी
dawa-e-dard-e-gham-o-iztirab kya deta

ग़ज़ल

दवा-ए-दर्द-ए-ग़म-ओ-इज़्तिराब क्या देता

अफ़ज़ल इलाहाबादी

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दवा-ए-दर्द-ए-ग़म-ओ-इज़्तिराब क्या देता
वो मेरी आँखों को रंगीन ख़्वाब क्या देता

थी मेरी आँखों की क़िस्मत में तिश्नगी लिक्खी
वो अपनी दीद की मुझ को शराब क्या देता

किया सवाल जो मैं ने वफ़ा के क़ातिल से
ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा था जवाब क्या देता

मैं चाहता था कि उस को गुलाब पेश करूँ
वो ख़ुद गुलाब था उस को गुलाब क्या देता

वो जिस ने देखा नहीं इश्क़ का कभी मकतब
मैं उस के हाथ में दिल की किताब क्या देता

मिरे नसीब में मिट्टी का इक दिया भी न था
तिरी हथेली पे मैं आफ़्ताब क्या देता

मैं उस से प्यास का शिकवा न कर सका 'अफ़ज़ल'
जो ख़ुद ही तिश्ना था वो मुझ को आब क्या देता