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दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की | शाही शायरी
daur-e-sbuhi shola-e-mina raqsan chhanw mein taron ki

ग़ज़ल

दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की

रविश सिद्दीक़ी

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दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की
पीर-ए-मुग़ाँ ने जाम उठाया ईद हुई मय-ख़्वारों की

कितने ही दर खुल जाएँगे जोश-ए-जुनूँ को बढ़ने दो
बंद रहेगा क्या दर-ए-ज़िंदाँ ख़ैर नहीं दीवारों की

काफ़िर-ए-इश्क़ समझ कर हम को कितने तूफ़ाँ उठते हैं
दिल की बात को किस से कह दें बस्ती है दीं-दारों की

पास-ए-अदब से इक इक काँटा हम ने चुना है पलकों से
आख़िर कुछ ताज़ीम थी लाज़िम दश्त-ए-वफ़ा के ख़ारों की

कितने दुख के दिन बीते हैं इस का भी था होश कहाँ
अपने हाल को कुछ समझा हूँ सूरत से ग़म-ख़्वारों की

ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ राज़ की जूया बाद-ए-सबा यकसर ग़म्माज़
बात तिरी ख़ल्वत तक पहुँची हम वहशी आवारों की

मौसम-ए-गुल की रानाई ने दश्त में डेरे डाले हैं
तुम भी 'रविश' अब घर से निकलो रुत आई है बहारों की