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दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के | शाही शायरी
daur-e-falak ke shikwe gile rozgar ke

ग़ज़ल

दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के

गोपाल मित्तल

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दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के
हैं मश्ग़ले यही दिल-ए-ना-कर्दा-कार के

यूँ दिल को छेड़ कर निगह-ए-नाज़ झुक गई
छुप जाए कोई जैसे किसी को पुकार के

सीने को अपने अपना गरेबाँ बना के हम
क़ाएल नहीं हैं पैरहन-ए-तार-तार के

क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वर्ना यूँ फ़रेब में आता बहार के

इक दिल और उस पे हसरत-ए-अरमाँ का ये हुजूम
क्या क्या करम हैं मुझ पे मिरे कर्दगार के

हम को तो रोज़-ए-हश्र का भी कुछ यक़ीं नहीं
क्या मुंतज़िर हूँ वादा-ए-फ़र्दा-ए-यार के

किस दिल से तेरा शिकवा-ए-बेदाद कर सकें
मारे हुए हैं हम निगह-ए-शर्मसार के