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दौड़े वो मेरे क़त्ल को तलवार खींच कर | शाही शायरी
dauDe wo mere qatl ko talwar khinch kar

ग़ज़ल

दौड़े वो मेरे क़त्ल को तलवार खींच कर

रौनक़ टोंकवी

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दौड़े वो मेरे क़त्ल को तलवार खींच कर
मैं रह गया इक आह-ए-शरर-बार खींच कर

गुस्ताख़ जज़्ब-ए-शौक़ है कितना ग़ज़ब किया
लाया है किस को यूँ सर-ए-बाज़ार खींच कर

है है ख़बर बहार की सुनते ही मर गया
इक आह-ए-सर्द मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार खींच कर

वाबस्ता इस से सैकड़ों दिल आशिक़ों के हैं
बंद-ए-क़बा न बाँधिए ज़िन्हार खींच कर

गर अपने आह-ओ-नाला में तासीर कुछ हुई
'रौनक़' हम उन को लाएँगे सौ बार खींच कर