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दस्तार-ए-एहतियात बचा कर न आएगा | शाही शायरी
dastar-e-ehtiyat bacha kar na aaega

ग़ज़ल

दस्तार-ए-एहतियात बचा कर न आएगा

सुल्तान अख़्तर

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दस्तार-ए-एहतियात बचा कर न आएगा
कोई भी उस गली से सुबुक-सर न आएगा

बस एक जस्त और सर-ए-कू-ए-जुस्तुजू
फिर रास्ते में कोई समुंदर न आएगा

उड़ जाएँगे हवा में सभी नक़्श-ए-ना-तमाम
और मौसम-ए-हुनर भी पलट कर न आएगा

कब तक रहोगे ज़िद के अहाते में ख़ेमा-ज़न
वो हद्द-ए-एहतियात से बाहर न आएगा

यूँ मुतमइन हैं रास्ते सेहन-ए-सुकूत के
जैसे कभी सदाओं का लश्कर न आएगा

जो कुछ है वो बहुत है कि फिर इस नवाह में
इक लम्हा-ए-सुकूँ भी मयस्सर न आएगा

'अख़्तर' अब इंतिज़ार की परछाइयाँ समेट
इस धूप में वो मोम का पैकर न आएगा