दस्त-ए-मुनइम मिरी मेहनत का ख़रीदार सही
कोई दिन और मैं रुस्वा सर-ए-बाज़ार सही
फिर भी कहलाऊँगा आवारा-ए-गेसू-ए-बहार
मैं तिरा दाम-ए-ख़िज़ाँ लाख गिरफ़्तार सही
जस्त करता हूँ तो लड़ जाती है मंज़िल से नज़र
हाइल-ए-राह कोई और भी दीवार सही
ग़ैरत-ए-संग है साक़ी ये गुलू-ए-तिश्ना
तेरे पैमाने में जो मौज है तलवार सही
मैं ने देखी देखी उसी में ग़म-ए-दौराँ की झलक
बे-ख़बर रंग-ए-जहाँ से निगह-ए-यार सही
उन से बिछड़े हुए 'मजरूह' ज़माना गुज़रा
अब भी होंटों में वही गर्मी-ए-रुख़्सार सही
ग़ज़ल
दस्त-ए-मुनइम मिरी मेहनत का ख़रीदार सही
मजरूह सुल्तानपुरी