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दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो | शाही शायरी
dast-e-dua ko kasa-e-sail samajhte ho

ग़ज़ल

दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो

सलीम कौसर

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दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
तुम दोस्त हो तो क्यूँ नहीं मुश्किल समझते हो

सीने पे हाथ रख के बताओ मुझे कि तुम
जो कुछ धड़क रहा है उसे दिल समझते हो

हर शय को तुम ने फ़र्ज़ किया और इस के बाद
साए को अपना मद्द-ए-मुक़ाबिल समझते हो

दरिया तुम्हें सराब दिखाई दिया और अब
गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-राह को मंज़िल समझते हो

ख़ुश-फ़हमियों की हद है कि पानी में रेत पर
जो भी जगह मिले उसे साहिल समझते हो

तन्हाई जल्वा-गाह-ए-तहय्युर है और तुम
वीरानियों के रक़्स को महफ़िल समझते हो

जिस ने तुम्हारी नींद पे पहरे बिठा दिए
अपनी तरफ़ से तुम उसे ग़ाफ़िल समझते हो