दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा
हर सर-ए-ख़ार पए-आबला नश्तर होगा
मय-कदे से तिरा दीवाना जो बाहर होगा
एक में शीशा और इक हाथ में साग़र होगा
हल्क़ा-ए-चशम-ए-सनम लिख के ये कहता है क़लम
बस कि मरकज़ से क़दम अपना न बाहर होगा
दिल न देना कभी इन संग-दिलों को यारो
चूर होवेगा जो शीशा तह-ए-पत्थर होगा
देख लेता वो अगर रुख़ की तजल्ली तेरे
आइना ख़ाना-ए-मायूसी में शश्दर होगा
चाक कर डालूँगा दामान-ए-कफ़न वहशत से
आस्तीं से न मिरा हाथ जो बाहर होगा
ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से
ऐसा बरगश्ता किसी का न मुक़द्दर होगा
ग़ज़ल
दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा
भारतेंदु हरिश्चंद्र