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दश्त-ओ-सहरा की कहाँ अब ज़िंदगानी चाहिए | शाही शायरी
dasht-o-sahra ki kahan ab zindagani chahiye

ग़ज़ल

दश्त-ओ-सहरा की कहाँ अब ज़िंदगानी चाहिए

कौसर मज़हरी

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दश्त-ओ-सहरा की कहाँ अब ज़िंदगानी चाहिए
और अगर ऐसा है तो होंटों को पानी चाहिए

सोचता हूँ मेरे दिल तक किस तरह पहुँचे कोई
बे-निशाँ घर के लिए कुछ तो निशानी चाहिए

पुतलियों पर रक़्स करना ही कमाल-ए-फ़न नहीं
दर्द के आँसू को तो पैहम रवानी चाहिए

इक सुनहरा ख़्वाब मेरी नींद को दरकार है
ख़्वाब को भी नींद ही की पासबानी चाहिए

रात गुज़री है हिसार-ए-कर्ब में ऐ 'मज़हरी'
शाम अब दिल के लिए कोई सुहानी चाहिए