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दश्त-ओ-दरिया के ये उस पार कहाँ तक जाती | शाही शायरी
dasht-o-dariya ke ye us par kahan tak jati

ग़ज़ल

दश्त-ओ-दरिया के ये उस पार कहाँ तक जाती

बाक़ी अहमदपुरी

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दश्त-ओ-दरिया के ये उस पार कहाँ तक जाती
घर की दीवार थी दीवार कहाँ तक जाती

मिट गई हसरत-ए-दीदार भी रफ़्ता रफ़्ता
हिज्र में हसरत-ए-दीदार कहाँ तक जाती

थक गए होंट तिरा नाम भी लेते लेते
एक ही लफ़्ज़ की तकरार कहाँ तक जाती

लाज रखना थी मसीहाई की हम को वर्ना
देखते लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक जाती

राहबर उस को सराबों में लिए फिरते थे
ख़िल्क़त-ए-शहर थी बीमार कहाँ तक जाती

हर तरफ़ हुस्न के बाज़ार लगे थे 'बाक़ी'
हर तरफ़ चश्म-ए-ख़रीदार कहाँ तक जाती