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दश्त-नवर्दी में कोई सात था | शाही शायरी
dasht-nawardi mein koi sat tha

ग़ज़ल

दश्त-नवर्दी में कोई सात था

मोहम्मद इज़हारुल हक़

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दश्त-नवर्दी में कोई सात था
मैं भी अजब मंज़र-ए-बाग़ात था

ज़र्रा था या ख़ार था जो कुछ भी था
मेरे लिए शारेह-ए-आयात था

डूब गए इस में कई पूरे चाँद
दर तिरा चाह-ए-तिलिस्मात था

मुझ को ये धुन साए में बैठें कहीं
तुझ को मगर शौक़-ए-मुहिम्मात था

पाँव तले उड़ता हुआ तख़्त-ए-ज़र
सर पे मिरे साया-ए-जिन्नात था