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दश्त में घास का मंज़र भी मुझे चाहिए है | शाही शायरी
dasht mein ghas ka manzar bhi mujhe chahiye hai

ग़ज़ल

दश्त में घास का मंज़र भी मुझे चाहिए है

सुलेमान ख़ुमार

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दश्त में घास का मंज़र भी मुझे चाहिए है
सर छुपाने के लिए घर भी मुझे चाहिए है

थोड़ी तदबीर की सौग़ात है मतलूब मुझे
और थोड़ा सा मुक़द्दर भी मुझे चाहिए है

तैरने के लिए दरिया भी है काफ़ी लेकिन
शौक़ कहता है समुंदर भी मुझे चाहिए है

सिर्फ़ दीवारों से होती नहीं घर की तकमील
छत भी दरकार है और दर भी मुझे चाहिए है

गाहे फ़ुटपाथ बिछा कर भी मैं सो जाऊँगा
गाहे इक मख़मलीं बिस्तर भी मुझे चाहिए है

तेरी मा'सूम अदाई भी सर आँखों पे मगर
तुझ में इक शोख़ सितमगर भी मुझे चाहिए है

चाहिए है कभी रेला भी मुझे सर्दी का
और कभी धूप का लश्कर भी मुझे चाहिए है

इस्तिआ'रे भी ज़रूरी हैं सुख़न में लेकिन
शे'र में सनअ'त-ए-पैकर भी मुझे चाहिए है

गुफ़्तुगू किस से करें बौनों की बस्ती में 'ख़ुमार'
बात करनी है तो हम-सर भी मुझे चाहिए है