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दश्त क्या शय है जुनूँ क्या है दिवाने के लिए | शाही शायरी
dasht kya shai hai junun kya hai diwane ke liye

ग़ज़ल

दश्त क्या शय है जुनूँ क्या है दिवाने के लिए

शाज़ तमकनत

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दश्त क्या शय है जुनूँ क्या है दिवाने के लिए
शहर क्या कम है मुझे ख़ाक उड़ाने के लिए

हम ने क्या जानिए क्या सोच के गुलशन छोड़ा
फ़स्ल-ए-गुल देर ही क्या थी तिरे आने के लिए

मैं सराए के निगहबाँ की तरह तन्हा हूँ
हाए वो लोग कि जो आए थे जाने के लिए

हम वही सोख़्ता-सामान-ए-अज़ल हैं कि जिन्हें
ज़िंदगी दूर तक आई थी मनाने के लिए

दिल की मेहराब को दरकार है इक शम्अ' फ़क़त
वो जलाने के लिए हो कि बुझाने के लिए

तू मिरी याद से ग़ाफ़िल न तिरी याद से मैं
एक दर-पर्दा कशाकश है भुलाने के लिए

ज़ब्त-ए-पैहम के निसार ऐ दिल-ए-आज़ार-तलब
शर्त-ए-दामन भी उठा अश्क बहाने के लिए

सुन मुझे ग़ौर से सुन नग़्मा-ए-ना-पैदा हूँ
कोई आमादा नहीं साज़ उठाने के लिए

हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता की रूदाद लिए फिरते हैं
पहले कहते थे ग़ज़ल उन को सुनाने के लिए

दिल की दरयूज़ा-गर-ए-हर्फ़-ए-तसल्ली न रहा
हम ने ये रस्म उठा दी है ज़माने के लिए

साँस रोके हुए फिरता हूँ भरे शहर में 'शाज़'
उस ने क्या राज़ दिया मुझ को छुपाने के लिए