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दश्त के खेमा-ए-दरिया में मकीं कोई था | शाही शायरी
dasht ke KHema-e-dariya mein makin koi tha

ग़ज़ल

दश्त के खेमा-ए-दरिया में मकीं कोई था

आमिर नज़र

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दश्त के खेमा-ए-दरिया में मकीं कोई था
तिश्नगी तेरे तमाशे में कहीं कोई था

ज़िंदगी जामा-ए-तसकीन में रख़्शंदा थी
दूर तक हल्का-ए-दामाँ में नहीं कोई था

कितनी राहों का सफ़र दीदा-ए-इमआँ ने किया
क़ाबिल-ए-दीद सफ़र-बार यहीं कोई था

वक़्त से मंज़र-ए-सफ़्फ़ाक तराशा न गया
दीदा-ए-तर में तिरे गोशा-नशीं कोई था

शोला-ए-फ़हम तही-दस्त भी होता कैसे
मौज-ए-इदराक की शह-ए-रग के क़रीं कोई था

क़ुफ़्ल दरवाज़ा-ए-चाहत का न खोला तू ने
तेरे दरबार में दरयूज़ा-ए-जबीं कोई था

क़तरा-ए-ख़ून की ताबिश पे शफ़क़ हैराँ है
फिर हथेली पे लिए शम-ए-यक़ीं कोई था

दोनों आलम को निखारा है ज़मीं पर 'आमिर'
आसमाँ पर था कोई ज़ेर-ए-ज़मीं कोई था