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दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था | शाही शायरी
dasht-e-wafa mein Thokaren khane ka shauq tha

ग़ज़ल

दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था

बाक़र मेहदी

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दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था
अब हर क़दम पे उड़ती है काली हरी हवा

तन्हा कहाँ हूँ गो कि यहाँ कोई भी नहीं
मुझ से लिपट के सोता है साया ख़फ़ा ख़फ़ा

हैं गुल-मोहर के पेड़ भी दरिया भी धूप भी
ख़ामोश देखता है हर इक शय को बे-नवा

जीने की राह छोड़ के आगे निकल गया
मंज़िल पुकारती रही जाता है सर-फिरा

नग़्मा बना के मुझ को फ़ज़ा में उड़ा दिया
अब मैं कहाँ से ढूँढ के लाऊँ तिरी सदा