EN اردو
दश्त-ए-उम्मीद में ख़्वाबों का सफ़र करना था | शाही शायरी
dasht-e-ummid mein KHwabon ka safar karna tha

ग़ज़ल

दश्त-ए-उम्मीद में ख़्वाबों का सफ़र करना था

अहमद शनास

;

दश्त-ए-उम्मीद में ख़्वाबों का सफ़र करना था
तू कि इक लम्हा-ए-नापैद बसर करना था

हम ने क्यूँ आपसी अज़दाद के नुक्ते ढूँडे?
हम ने तो ख़ुद को बहम शीर-ओ-शकर करना था

नक़्श बनता ही नहीं संग-ए-समाअत पे कोई
कुंद अल्फ़ाज़ को फिर तीर-ओ-तबर करना था

साअत-ए-दर्द कि बे-चेहरा ओ बे-नाम रही
क़तरा-ए-अश्क कि महफ़ूज़ गुहर करना था

तिश्नगी माही-ए-बे-आब सी लिख होंटों पर
वर्ना यूँ बोसा-ए-साग़र से हज़र करना था

मुझ पे आयत न कोई लफ़्ज़ ही उतरा 'अहमद'
मेरी मुश्किल कि बयाँ मुझ को सफ़र करना था