दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
देर तक टूटते लम्हों की सदा कैसी थी
ज़िंदगी ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
उम्र भर सर से न उतरी ये बला कैसी थी
सुनते रहते थे मोहब्बत के फ़साने क्या क्या
बूँद भर दिल पे न बरसी ये घटा कैसी थी
क्या मिला फ़ैसला-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ कर के
तुम जो बिछड़े थे तो होंटों पे दुआ कैसी थी
टूट कर ख़ुद जो वो बिखरा है तो मालूम हुआ
जिस से लिपटा था वो दीवार-ए-अना कैसी थी
जिस्म से नोच के फेंकी भी तो ख़ुशबू न गई
ये रिवायात की बोसीदा क़बा कैसी थी
डूबते वक़्त भँवर पूछ रहा है 'क़ैसर'
जब किनारे से चले थे तो फ़ज़ा कैसी थी
ग़ज़ल
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
क़ैसर-उल जाफ़री