दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
और उन सब पे फ़ुज़ूँ बादिया-पैमाई भी
ख़्वाब-ए-राहत है कहाँ नींद भी आती नहीं अब
बस उचट जाने को आई जो कभी आई भी
याद है मुझ को वो बे-फ़िक्री ओ आग़ाज़-ए-शबाब
सुख़न-आराई भी थी अंजुमन-आराई भी
निगह-ए-शौक़-ओ-तमन्ना की वो दिलकश थी कमंद
जिस से हो जाते थे राम आहु-ए-सहराई भी
हम सनम-ख़ाना जहाँ करते थे अपना क़ाइम
फिर खड़े होते थे वाँ हूर के शैदाई भी
अब न वो उम्र न वो लोग न वो लैल ओ नहार
बुझ गई तब्अ कभी जोश पे गर आई भी
अब तो शुबहे भी मुझे देव नज़र आते हैं
उस ज़माने में परी-ज़ाद थी रुस्वाई भी
काम की बात जो कहनी हो वो कह लो 'अकबर'
दम में छिन जाएगी ये ताक़त-ए-गोयाई भी
ग़ज़ल
दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी
अकबर इलाहाबादी