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दश्त-ए-बला-ए-शौक़ में ख़ेमे लगाए हैं | शाही शायरी
dasht-e-bala-e-shauq mein KHeme lagae hain

ग़ज़ल

दश्त-ए-बला-ए-शौक़ में ख़ेमे लगाए हैं

अमीर हम्ज़ा साक़िब

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दश्त-ए-बला-ए-शौक़ में ख़ेमे लगाए हैं
इब्न-ए-ज़ियाद-ए-वक़्त से कह दो हम आए हैं

इक कहकशाँ ही तन्हा नहीं वजह-ए-दिल-कशी
आँचल पे तेरे हम ने भी मोती लुटाए हैं

तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
तब ख़ानक़ाह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में आए हैं

तुम ही नहीं इलाज-ए-मोहब्बत से बे-नियाज़
हम ने भी एहतियात के पुर्ज़े उड़ाए हैं

लगता यही है नूर के रथ पर सवार हूँ
आँखों ने तेरी मुझ को वो रस्ते सुझाए हैं

वहशत-सारा-ए-दहर में भी शाद-काम हैं
'साक़िब' ये लोग कौन से जंगल से आए हैं