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दरवाज़ों पर दिन भर की थकन तहरीर हुई | शाही शायरी
darwazon par din bhar ki thakan tahrir hui

ग़ज़ल

दरवाज़ों पर दिन भर की थकन तहरीर हुई

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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दरवाज़ों पर दिन भर की थकन तहरीर हुई
मिरे शहर की शब हर चौखट की ज़ंजीर हुई

सब धूप उतर गई टूटी हुई दीवारों से
मगर एक किरन मेरे ख़्वाबों में असीर हुई

मिरा सूना घर मिरे सीने से लग कर रोता है
मिरे भाई तुम्हें इस बार बहुत ताख़ीर हुई

हमें रंज बहुत था दश्त की बे-इम्कानी का
लो ग़ैब से फिर इक शक्ल ज़ुहूर-पज़ीर हुई

कोई हैरत मेरे लहजे की पहचान बनी
कोई चाहत मेरे लफ़्ज़ों की तासीर हुई

इस दर्द के क़ातिल-मंज़र को इल्ज़ाम न दो
ये तो देखने वाली आँखों की तक़्सीर हुई

किसी लश्कर से कहीं बहता पानी रुकता है
कभी जू-ए-रवाँ किसी ज़ालिम की जागीर हुई

फिर लौह पे लुटने वाले ख़ज़ाने लिखे गए
मुझे अब के बरस भी दौलत-ए-जाँ तक़दीर हुई