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डरता रहता हूँ हम-नशीनों में | शाही शायरी
Darta rahta hun ham-nashinon mein

ग़ज़ल

डरता रहता हूँ हम-नशीनों में

सालिक लखनवी

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डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
एक पत्थर हूँ आबगीनों में

बात करना जिन्हें नहीं आती
आज वो भी हैं नुक्ता-चीनों में

जो भँवर को समझते हैं साहिल
ऐसे भी लोग हैं सफ़ीनों में

मोहतसिब गिन ले उँगलियों ही पर
चंद ही रिंद हैं कमीनों में

ख़िज़्र गुज़रे थे शहर से अपने
हम भी थे एक राह-बीनों में

बैअ'त-ए-हक़ की बात क्या करते
हाथ लर्ज़ां थे आस्तीनों में

फ़ैज़-ए-शहर-ए-'अनीस' से 'सालिक'
शे'र कहते हैं इन ज़मीनों में