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डरता हूँ अर्ज़-ए-हाल से धोका न हो कहीं | शाही शायरी
Darta hun arz-e-haal se dhoka na ho kahin

ग़ज़ल

डरता हूँ अर्ज़-ए-हाल से धोका न हो कहीं

मोहम्मद विलायतुल्लाह

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डरता हूँ अर्ज़-ए-हाल से धोका न हो कहीं
वो रूठ जाएँ और भी ऐसा न हो कहीं

कब तक तलाश दिल की करूँ और कहाँ कहाँ
ज़ुल्फ़ों में देख लीजिए उलझा न हो कहीं

क़ासिद मिरे मकाँ की तरफ़ से गया जो आज
होता है शक मुझे कि बुलाया न हो कहीं

हो जाए जल के ख़ाक न ख़ुद ये मिरा वजूद
डरता हूँ आह का असर उल्टा न हो कहीं

दिल ले के अपने पास बुलाएँ वो किस लिए
ये भी तो सोचते हैं तक़ाज़ा न हो कहीं

ऐ शैख़ तेरी बात का क्या ए'तिबार हो
पर्दे में इस अबा के भी दुनिया न हो कहीं

मुद्दत हुई कि दिल को क़रार-ओ-सुकूँ नहीं
फिरता है जैसे इस का ठिकाना न हो कहीं

उन का मरीज़-ए-ग़म है कई दिन से जाँ-ब-लब
वो दिल में सोचते हैं बहाना न हो कहीं

कू-ए-बुताँ में तेरा गुज़र है जो बार बार
ऐ दिल तू ऐसी बातों से रुस्वा न हो कहीं

'हाफ़िज़' की चश्म-ए-तर पे नज़र चाहिए ज़रूर
ये तार-ए-अश्क देखिए दरिया न हो कहीं