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दर्स-ए-आराम मेरे ज़ौक़-ए-सफ़र ने न दिया | शाही शायरी
dars-e-aram mere zauq-e-safar ne na diya

ग़ज़ल

दर्स-ए-आराम मेरे ज़ौक़-ए-सफ़र ने न दिया

एज़ाज़ अफ़ज़ल

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दर्स-ए-आराम मेरे ज़ौक़-ए-सफ़र ने न दिया
मुझ को मंज़िल पे भी ज़ालिम ने ठहरने न दिया

रक़्स करती रही तूफ़ान में कश्ती मेरी
मेरी हिम्मत ने मुझे पार उतरने न दिया

ज़िंदगी मौत से बद-तर थी पर ऐ वा'दा-ए-दोस्त
लज़्ज़त-ए-कश्मकश-ए-शौक़ ने मरने न दिया

मुल्तफ़ित कल नज़र आती थीं निगाहें उन की
कहीं धोका तो मुझे मेरी नज़र ने न दिया

यूँ तो रहने को परेशानी-ए-ख़ातिर ही रही
तेरी ज़ुल्फ़ों को मगर मैं ने बिखरने न दिया

फूल तो फूल थे ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन
तू ने काँटों से भी दामन मुझे भरने न दिया

इन्हीं अल्फ़ाज़ में है मेरी कहानी 'अफ़ज़ल'
ग़म ने जीने न दिया शौक़ ने मरने न दिया