दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ
मैं ख़ुद को जीत के इस हार से निकलता हूँ
तुझे शनाख़्त नहीं है मिरे लहू की क्या
मैं रोज़ सुब्ह के अख़बार से निकलता हूँ
मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं
मगर मैं डूब के इस पार से निकलता हूँ
अजीब ख़ौफ़ है दोनों को क्या किया जाए
मैं क़द में अपने ही सरदार से निकलता हूँ
अब आगे फ़ैसला क़िस्मत पे छोड़ के मैं भी
तिलिस्म-ए-साबित-ओ-सय्यार से निकलता हूँ
सुनी है मैं ने किसी सम्त से वही आवाज़
सुनो मैं गर्दिश-ए-परकार से निकलता हूँ
मिरी तलाश में वो भी ज़रूर आएगा
सो मैं भी चश्म-ए-ख़रीदार से निकलता हूँ
नतीजा जो भी हो जा-ए-अमाँ मिले न मिले
मैं अब ख़राबा-ए-पुरकार से निकलता हूँ

ग़ज़ल
दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ
शोएब निज़ाम