दरमियान-ए-गुनाह-ओ-सवाब आदमी
है ख़ुद अपने लिए ही अज़ाब आदमी
ये ज़मीं जिस ख़ता की बनी थी सज़ा
मैं वही तो हूँ ख़ाना-ख़राब आदमी
हल मुअम्मे का जैसे मुअम्मा कोई
बस कि है आदमी का जवाब आदमी
देख बे-साख़्ता अक्स घबरा गया
शीशे के सामने बे-हिजाब आदमी
फ़ल्सफ़ा भी ख़ुदी फ़लसफ़ी भी ख़ुदी
आप तालिब है आप ही किताब आदमी
हाशिया है कभी और कभी रंग है
जैसे जाम आदमी और शराब आदमी
मौत दे भी गई है जवाब-ए-अज़ल
और खड़ा रह गया ला-जवाब आदमी
मुझ से जल-थल हुआ है मिरा अंदरूँ
मैं ने कर ही दिया बे-नक़ाब आदमी
ग़ज़ल
दरमियान-ए-गुनाह-ओ-सवाब आदमी
आतिफ़ ख़ान