दरिया ने कल जो चुप का लिबादा पहन लिया
प्यासों ने अपने जिस्म पे सहरा पहन लिया
वो टाट की क़बा थी कि काग़ज़ का पैरहन
जैसा भी मिल गया हमें वैसा पहन लिया
फ़ाक़ों से तंग आए तो पोशाक बेच दी
उर्यां हुए तो शब का अंधेरा पहन लिया
गर्मी लगी तो ख़ुद से अलग हो के सो गए
सर्दी लगी तो ख़ुद को दोबारा पहन लिया
भौंचाल में कफ़न की ज़रूरत नहीं पड़ी
हर लाश ने मकान का मलबा पहन लिया
'बे-दिल' लिबास-ए-ज़ीस्त बड़ा दीदा-ज़ेब था
और हम ने इस लिबास को उल्टा पहन लिया
ग़ज़ल
दरिया ने कल जो चुप का लिबादा पहन लिया
बेदिल हैदरी