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दरिया को अपने पाँव की कश्ती से पार कर | शाही शायरी
dariya ko apne panw ki kashti se par kar

ग़ज़ल

दरिया को अपने पाँव की कश्ती से पार कर

रशीद निसार

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दरिया को अपने पाँव की कश्ती से पार कर
मौजों के रक़्स देख ले ख़ुद को उतार कर

सूरज तिरे तवाफ़ को निकलेगा रात-दिन
तू आप वक़्त है तू न लम्हे शुमार कर

हाबील तेरी ज़ात में क़ाबील है मगर
अपने लहू को बेच दे ख़्वाहिश को मार कर

अश्कों के दीप बिक गए बाज़ार में तो क्या
अहद-ए-गराँ में अपने पसीने से प्यार कर

इक और कर्बला है तिरे दर के सामने
अपने लहू को जीत ले बाज़ी को हार कर

इक नस्ल का वजूद लहू के नुमू में है
कुछ देर ख़्वाब देख ज़रा इंतिज़ार कर