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दरिया की मौज ही में नहीं इज़्तिराब है | शाही शायरी
dariya ki mauj hi mein nahin iztirab hai

ग़ज़ल

दरिया की मौज ही में नहीं इज़्तिराब है

कैफ़ अहमद सिद्दीकी

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दरिया की मौज ही में नहीं इज़्तिराब है
संग-ए-रवाँ के दिल में भी इक ज़ख़्म-ए-आब है

हर फ़र्द आज टूटते लम्हों के शोर में
अस्र-ए-रवाँ की जागती आँखों का ख़्वाब है

वो ख़ुद ही अपनी आग में जल कर फ़ना हुआ
जिस साए की तलाश में ये आफ़्ताब है

अब कोई निस्फ़ दाम पे भी पूछता नहीं
ये ज़िंदगी निसाब से ख़ारिज किताब है

पलकों पे आज नींद की किर्चें बिखर गईं
शीशे की आँख में कोई पत्थर का ख़्वाब है

ऐ 'कैफ़' ना-क़दों के तअस्सुब के बावजूद
मेरा हर एक शेर अदब की किताब है