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दरिया हैं फिर भी मिलते नहीं मुझ से यार लोग | शाही शायरी
dariya hain phir bhi milte nahin mujhse yar log

ग़ज़ल

दरिया हैं फिर भी मिलते नहीं मुझ से यार लोग

मंज़र सलीम

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दरिया हैं फिर भी मिलते नहीं मुझ से यार लोग
जुरअत कहाँ कि सहरा से हों हम-कनार लोग

जादू फ़ज़ा का था कि हवा में मिला था ज़हर
पत्थर हुए जहाँ थे वहीं बे-शुमार लोग

अब साया ओ समर की तवक़्क़ो कहाँ रुके
सूखे हुए शजर हैं सर-ए-रहगुज़ार लोग

दहशत खुली फ़ज़ा की क़यामत से कम न थी
गिरते हुए मकानों में आ बैठे यार लोग

इक दूसरे का हाल नहीं पूछता कोई
इक दूसरे की मौत पे हैं शर्मसार लोग

सूरज चढ़ा तो पिघली बहुत चोटियों की बर्फ़
आँधी चली तो उखड़े बहुत साया-दार लोग