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दरिया-ए-शब के पार उतारे मुझे कोई | शाही शायरी
dariya-e-shab ke par utare mujhe koi

ग़ज़ल

दरिया-ए-शब के पार उतारे मुझे कोई

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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दरिया-ए-शब के पार उतारे मुझे कोई
तन्हाई डस रही है पुकारे मुझे कोई

गो जानता हूँ सब ही निशाने पे हैं यहाँ
पागल हूँ चाहता हूँ न मारे मुझे कोई

मुट्ठी सदफ़ ने भेंच रखी है कि छू के देख
मोती पुकारता है उभारे मुझे कोई

काँटों में रख के फूल हवा में उड़ा के ख़ाक
करता है सौ तरह से इशारे मुझे कोई

अब तक तो ख़ुद-कुशी का इरादा नहीं किया
मिलता है क्यूँ नदी के किनारे मुझे कोई

बिखरा हुआ हूँ वक़्त के शाने पे गर्द सा
इक ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन हूँ सँवारे मुझे कोई