दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
और कुछ और भी मरहम के लगाने से उठा
उस के अल्फ़ाज़-ए-तसल्ली ने रुलाया मुझ को
कुछ ज़ियादा ही धुआँ आग बुझाने से उठा
अहद-ए-माज़ी भी तो बे-दाग़ नहीं क्यूँ कहिए
पासदारी का चलन आज ज़माने से उठा
वजह मुमकिन है कोई और हो मैं ये समझा
वो तिरी बज़्म में शायद मिरे आने से उठा
ज़ुल्फ़-ए-ज़ोलीदा तो ज़ेबाइश-ए-रुख़्सार हुई
मसअला सारा फ़क़त इक तिरे शाने से उठा
अपनी पा-मर्दी पे वो शख़्स भी नाज़ाँ है 'ज़हीर'
जो गिराने से गिरा और उठाने से उठा
ग़ज़ल
दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
ज़हीर सिद्दीक़ी