दर्द तेरा मिरे सीने से निकाला न गया
इक मुहाजिर को मदीने से निकाला न गया
मैं तिरे साथ गुज़ारे हुए दिन जीता रहा
एक पल भी तुझे जीने से निकाला न गया
एक मोती भी न उभरा मिरी आँखों में कभी
तेरे बिन कुछ भी दफ़ीने से निकाला न गया
जब निकाला है मुझे दिल से तो रोते क्यूँ हो
तुम से काँटा भी क़रीने से निकाला न गया
लुक़्मा-ए-तर न मिलेगा तिरे नाज़ुक तन को
गर मिरे ख़ून पसीने से निकाला न गया
मैं ने माँगा था बस इक धूप का टुकड़ा 'आज़िम'
वो भी सावन के महीने से निकाला न गया
ग़ज़ल
दर्द तेरा मिरे सीने से निकाला न गया
ऐनुद्दीन आज़िम