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दर्द शायान-ए-शान-ए-दिल भी नहीं | शाही शायरी
dard shayan-e-shan-e-dil bhi nahin

ग़ज़ल

दर्द शायान-ए-शान-ए-दिल भी नहीं

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

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दर्द शायान-ए-शान-ए-दिल भी नहीं
और शब-ए-हिज्र मुस्तक़िल भी नहीं

यूँ गले मिल के फ़ाएदा क्या है
ज़ख़्म अंदर से मुंदमिल भी नहीं

वस्ल भी है फ़िराक़ भी इस में
मौसम-ए-इश्क़ मो'तदिल भी नहीं

हर किसी से ये मेल क्यूँ खाए
दिल तो फिर दिल है आब-ओ-गिल भी नहीं

सोच है कुछ हक़ीक़तें कुछ हैं
ख़्वाब-ए-ता'बीर मुत्तसिल भी नहीं

अब भी जारी है रक़्स मिट्टी का
साँस के तार मुज़्महिल भी नहीं

हम जो रूठे हैं जान से 'ज़ाकिर'
रब्त टूटा है मुंफ़सिल भी नहीं