दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
मेरी कश्ती न कहीं ग़र्क़ हो साहिल के क़रीब
वज्द में रूह है और रक़्स में है पा-ए-तलब
देखिए हाल मिरे शौक़ का मंज़िल के क़रीब
रह गया था जो कभी पा-ए-तलब में चुभ कर
अब वही ख़ार-ए-तमन्ना है रग-ए-दिल के क़रीब
अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
रंग मौजों का बदल जाता है साहिल के क़रीब
जज़्बा-ए-शौक़ भी कुछ काम न आया 'हादी'
ना-तवानी ने बिठाया मुझे मंज़िल के क़रीब
ग़ज़ल
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
हादी मछलीशहरी