EN اردو
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब | शाही शायरी
dard sa uTh ke na rah jae kahin dil ke qarib

ग़ज़ल

दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब

हादी मछलीशहरी

;

दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
मेरी कश्ती न कहीं ग़र्क़ हो साहिल के क़रीब

वज्द में रूह है और रक़्स में है पा-ए-तलब
देखिए हाल मिरे शौक़ का मंज़िल के क़रीब

रह गया था जो कभी पा-ए-तलब में चुभ कर
अब वही ख़ार-ए-तमन्ना है रग-ए-दिल के क़रीब

अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
रंग मौजों का बदल जाता है साहिल के क़रीब

जज़्बा-ए-शौक़ भी कुछ काम न आया 'हादी'
ना-तवानी ने बिठाया मुझे मंज़िल के क़रीब