EN اردو
दर्द-ओ-ग़म ज़माने के और एक जी तन्हा | शाही शायरी
dard-o-gham zamane ke aur ek ji tanha

ग़ज़ल

दर्द-ओ-ग़म ज़माने के और एक जी तन्हा

रफ़ीक़ ख़ावर जस्कानी

;

दर्द-ओ-ग़म ज़माने के और एक जी तन्हा
आँधियों में जलती है शम-ए-ज़िंदगी तन्हा

अपनी अपनी राहें हैं अपनी अपनी मंज़िल है
कार-गाह-ए-हस्ती में रहते हैं सभी तन्हा

शब से दाग़-ए-हिज्राँ का वास्ता अजब शय है
तेरी दिलकशी तन्हा मेरी बेकली तन्हा

हाए उस ज़माने में अहल-ए-फ़न की बे-क़दरी
मौसम-ए-ज़मिस्ताँ में जैसे चाँदनी तन्हा

जाने दिल की धड़कन में क्या फ़रेब होता है
तुझ से बात करते हैं हम कभी कभी तन्हा

रहगुज़र पे सजती है अपनी बज़्म-ए-तन्हाई
तेरी नक़्श-ए-पा तन्हा मेरी बे-ख़ुदी तन्हा

हुस्न-ओ-इश्क़ की तक़दीर इक तज़ाद बाहम है
उन की शाम भी महफ़िल अपनी सुब्ह भी तन्हा

कौन किस की सुनता है ऐसे दौर में 'ख़ावर'
हम ने दूर छेड़ी है ग़म की रागनी तन्हा