दर्द की रात गुज़रती है मगर आहिस्ता
वस्ल की धूप निखरती है मगर आहिस्ता
आसमाँ दूर नहीं अब्र ज़रा नीचे है
रौशनी यूँ भी बिखरती है मगर आहिस्ता
तुम ने माँगी है दुआ ठीक है ख़ामोश रहो
बात पत्थर में उतरती है मगर आहिस्ता
तेरी ज़ुल्फ़ों से उसे कैसे जुदा करता मैं
ज़िंदगी यूँ भी सँवरती है मगर आहिस्ता

ग़ज़ल
दर्द की रात गुज़रती है मगर आहिस्ता
फ़ारूक़ नाज़की