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दर्द ख़ामोश रहा टूटती आवाज़ रही | शाही शायरी
dard KHamosh raha TuTti aawaz rahi

ग़ज़ल

दर्द ख़ामोश रहा टूटती आवाज़ रही

ताहिर फ़राज़

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दर्द ख़ामोश रहा टूटती आवाज़ रही
मेरी हर शाम तिरी याद की हमराज़ रही

शहर में जब भी चले ठंडी हुआ के झोंके
तपते सहरा की तबीअ'त बड़ी ना-साज़ रही

आइने टूट गए अक्स की सच्चाई पर
और सच्चाई हमेशा की तरह राज़ रही

इक नए मोड़ पे उस ने भी मुझे छोड़ दिया
जिस की आवाज़ में शामिल मिरी आवाज़ रही

सुनता रहता हूँ बुज़ुर्गों से मैं अक्सर 'ताहिर'
वो समाअ'त ही रही और न वो आवाज़ रही